अब हर किसी से मोहब्बत नहीं है बस आपकी तरह ग़फ़लत नहीं है नर थे तो छीने गए हमसे आँसू क्या कम है कि सबसे नफ़रत नहीं है बाज़ू न दे जो गिरे आदमी को ऐसे बशर की कोई अज़मत नहीं है इंसान मुफ़लिस है अपनी तलब से इस बात में कोई हिकमत नहीं है कोई ज़मी पर कोई मेज़ पर खाए फिर पूछते हैं कोई इशरत नहीं है
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