कैसी ख़ल्वत कैसी बेकली है

कैसी ख़ल्वत कैसी बेकली है
जब से ग़म की शाम ढल चली है
रहता था जिस घर में मेरा तन-मन
कहते हैं ग़मगीनी भी पली है
उस घर से जाने को तड़पा जब भी
कोई दुश्वारी गले पड़ी है
बाहर आओ या रहो दुखी ही
ग़म-कश चुन यह चुनने की घड़ी है
रौशन यह कैसी सहर है ‘काशिफ़’
छू ले यह जो ओस की लड़ी है



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