अभी हाल में मैंने हिन्दयुग्म द्वारा प्रकाशित मानव कौल का पाँचवा उपन्यास ‘पतझड़’ समाप्त किया। इस उपन्यास की कथावस्तु प्रेम और प्रेम में धोखा खाए, एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है। यदि गहराई से देखा जाए, तो प्रेम में धोखा खाना, तो एक धक्का मात्र है। असल में यह उपन्यास कथा के नायक ऋषभ के अपने जीवन के आकलन और उसके व्यक्तित्व के विकास की कहानी है।
मानव कौल के लेखन की कुछ अपनी ख़ासियतें हैं। उदाहरण के लिए उपन्यास के पहले प्रकरण ‘कैथरीन’ को ही लेते हैं।यह समझ नहीं आता कि इस प्रकरण में लेखक स्वयं है या उपन्यास का नायक ऋषभ है। क्योंकि बेंजमिन को परिचय देते समय, वह (लेखक या ऋषभ?) कहता है, “हे बेंजमिन, आई एम ऋषभ।” इस संवाद के आगे के वाक्य से ही यह पूरा संशय खड़ा होता है।आगे के वाक्य हैं – “मेरे ऋषभ बोलते ही कैथरीन के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई, उसे पता था ये मेरा नाम नहीं है।”
इसके बाद पूरे उपन्यास में न बेंजमिन का ज़िक्र है, न ही कैथरीन का। इसके बाद की सारी कहानी मुख्य चरित्र ऋषभ और सहायक या गौण चरित्रों (रिदम, ओल्गा, नेनी, ऐरिस, माला, शशि आदि) को लेकर आगे बढ़ती है। पाठक के लिए इस तरह की उलझनें पैदा करना मानव का शगल है। यदि आपने मानव का बाकी लेखन भी पढ़ा है, तो आप यह जानते होंगे कि यह केवल शगल नहीं है, बल्कि इसका एक उद्देश्य है। अपने एक और उपन्यास ‘अंतिमा’ में लेखक (‘अंतिमा’ का मुख्य चरित्र भी एक लेखक है।) अपने संपादक से बात करते हुए कहता है, “मेरी यह एक बुरी आदत हैं कि मैं प्रक्रिया भी लिखता चलता हूँ।” तो शायद ‘कैथरीन’ प्रकरण केवल ऋषभ नामक चरित्र के जन्म के बारे में है। शायद लेखक यह बताना चाहता कि चरित्र ऋषभ का जन्म कब और कैसे हुआ!
इस भ्रम को आगे भी जारी रखा जाता है, लेकिन वहाँ पाठक के लिए यह बिल्कुल स्पष्ट है। इसलिए इसे ठीक-ठीक भ्रम की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती है। ऋषभ जब रिदम से मिलता है, तो रिदम उसे सलीम बना देती है और वह सलीम बना रहता है। जब वह नेनी और शशि से मिलता है, तब वह रिदम हो जाता है। सोनिया से मिलता है, तो सारथी हो जाता है। लेखक शायद ऋषभ को दूसरे चरित्रों में इसलिए बदलता है, ताकि ऋषभ अपने-आपको उनकी जगह पर रखकर अपने-आपको आँक सके। उनके नज़रिए को समझ सके। जिन चरित्रों में भी ऋषभ बदलता है, वे चरित्र उसके बहुत करीब हैं। सारथी उसकी पूर्व-प्रेमिका है, जिससे रिश्ता टूटने के बाद, वह दिल्ली से कोपेनहेगन चला आता है। रिदम उसको कोपेनहेगन में मिलती है, जिससे उसकी दोस्ती गहराती है; पर उनकी दोस्ती प्रेम में परिवर्तित हो, इससे पहले ही पारूल से बनाए एक रात के संबंध के अपराधबोध में वह Horsens से कोपेनहेगन वापस चला आता है। रिदम को धोखा देने की असहजता उसे वहाँ भी टिकने नहीं देती और वह हैमबर्ग चला जाता है।
कहानी की शुरूआत का ऋषभ लकीर का फ़कीर है। वह समाज की बनी-बनाई परिपाटी पर चलता है। वह अपने घर से नौकरी पर जाता है और वापस घर आ जाता है। वह अपने जीवन में कुछ भी अनियोजित नहीं करता। उसके मन में सारथी की तरह पहाड़ पर घर बनाने के न सपने हैं, और न ही आकांक्षाएँ। वह एक कुत्ता है, मालिक उसकी तरफ़ गेंद फेकता है और वह उसे पकड़ने के लिए दौड़ पड़ता है। लोगों को उसको बताना होता है कि क्या करना है, वह अपनी इच्छा से ज़्यादा कुछ नहीं करता। उसकी ऐसी स्थिति क्यों है?; लेखक इसका कोई ख़ास ब्यौरा तो नहीं देता, लेकिन रूपात्मक रूप में यह बता देता है कि वह एक अति सामान्य व्यक्ति क्यों है! ‘मध्यवर्गीय डरों’ ने उसको इस तरह का व्यक्ति बना दिया है।
इस मध्यवर्गीय दुनिया से बाहर न वह कुछ सोचता है और न ही जानता है। वह सारथी के साथ वफ़ादार है। उसके जन्मदिन पर वह अपने दोस्तों के साथ मिलकर सरप्राइज़ पार्टी दे देता है। वह प्रेम को बस इसी तरह जानता है और इसी तरह समझता है। उसे केवल नॉर्वे जाकर यह समझ आता है कि उसका व्यक्तित्व कितना बोझल और उबाऊ है।
उसके व्यक्तित्व में कुछ परिवर्तन तो उसके इस यात्रा के अनुभवों के साथ ही होने लगते हैं, लेकिन उसके व्यक्तित्व का असल पतझड़, इस अहसास के बाद ही शुरू होता है। कहानी के अंत के ऋषभ पर नए पत्ते उग आए हैं।
उपन्यास की भाषा जितनी सरल हो सकती है, उतनी है। सीधी, सरल और सटीक है। ‘नई वाली हिन्दी’ की जितनी रचनाओं से, मैं आजतक मुख़ातिब हुआ हूँ। वे बेहद सरल हैं। इस तरह की भाषा नए-नवेले पाठकों को अपनी तरफ़ काफ़ी आकर्षित करती है।
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