इक अकेलापन है, इक बेचैनी है, जान है, सो ये ज़िंदगी भी जीनी है क्या हासिल है इन सुबहों और शामों का यह किसने जीने की आरज़ू छीनी है मैं अपनी उदासी का करूँ कैसे बयाँ मेरा हमसफ़र भी तमाश-बीनी है बरसेगी आग आसमाँ से जल्दी ही यह अज़ाब मेरी ज़ात का, ज़मीनी है ख़त्म होंगे तो एक साथ होंगे सभी ज़िन्दा हैं तब तक यह नुक्ता-चीनी है
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